कभी कभी सुबह का सवेरा उम्मीदों से भरा और
साँझ का संझेरा नाउम्मीदों से भरा बन जाता है
कभी सुबह का जोश, उजाला कम होते कम होता है
कभी साँझ ढलते ढलते खत्म होने को खत्म हो जाता है
आ गयी हूँ मैं जिस राह पर चलते चलते यहाँ तक
प्रभु उसी पर मुझे चलाये रखना कभी ना गिरने देना
कभी डगमगाऊँ हिम्मत हारूँ तो तुम आकर थाम लेना
साहिल दूर सही कितना भी कभी ना मुझको डूबने देना
सफ़र लंबा मंज़िल ऊँची बाँह मेरी तुम पकड़े रहना
राह मुश्किल रास्ते दुर्गम कभी ना मुझको डिगने देना
थक हार कर कभी जो बैठूँ नई उम्मीद तुम आकर भर देना
डूबते ढलते अंधियारे की तरफ़ नहीं,
बढ़ते उम्मीदों के उजाले की तरफ़ चलाये रखना
पंछी जब लौटते हैं अपने घोंसले घरौंदों की ओर
देख उन्हें ये मेरा मन भी चाह से भर जाता है
सोचने को मजबूर हो जाती हूँ कि कब कम होंगे ये
राह के कांटे और पथरीले संकरे रास्तों के कठिन सफ़र पे
है उस दिन की प्रतीक्षा जब मैं लौटूँ मैं भी अपने नीड़ में
बने रहना चलते रहना साथ मेरे जब तक ना पहुँचूँ अपनी मंज़िल पे
मंज़िल से ध्यान ना भटकने देना चातक की तरह निहारूँ मैं
चाहे थकी हूँ हार मानी हूँ चाहे छाले भरे हों पाँव में
बैठी हूँ मैं ध्यान लगाए देखूँ तुझे इसी उम्मीद से
कि शायद मैं भी सुकून की ठंडी सांस लूँ अपने घर तुम्हारी छाँव में
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें