सोमवार, 5 जुलाई 2021

शौक

बहुत शौक था तुम्हें

मुझे ख़ुद से दूर करने का

शौक था इसलिए पूरा किया

आदत होती तो बदल देती

तुम अलग मैं अलग

सबसे अलग सबसे जुदा थी

मौन अलग और बोल अलग

ख़ुद की हर बात पे फ़िदा थी

तुम नहीं समझोगे

तुमने देखा ही कहाँ

कभी मेरी तरफ़ मुड़कर

देखते तो पाते मुझे अलग

औरों की तरह मुझे भी

ग़लत समझ लिया तुमने

अब वक़्त नहीं है

समझने समझाने का

अब जियो तुम अलग

और मैं अलग

चला जाता है

जो चला जाता है वो वापस क्यों नहीं आता

उसका मन नहीं करता या आया नहीं जाता

जाने वालों के बिना हमसे रहा नहीं जाता

कैसे कहें कि उनके बिना जिया नहीं जाता

जाने वाले हो सके तो लौट कर आना

ऐसे भी कोई जाता है कि जाने के बाद

दोबारा लौट कर आया नहीं जाता

सवेरा उम्मीदों से भरा

कभी कभी सुबह का सवेरा उम्मीदों से भरा और

साँझ का संझेरा नाउम्मीदों से भरा बन जाता है

कभी सुबह का जोश, उजाला कम होते कम होता है

कभी साँझ ढलते ढलते खत्म होने को खत्म हो जाता है

आ गयी हूँ मैं जिस राह पर चलते चलते यहाँ तक

प्रभु उसी पर मुझे चलाये रखना कभी ना गिरने देना

कभी डगमगाऊँ हिम्मत हारूँ तो तुम आकर थाम लेना

साहिल दूर सही कितना भी कभी ना मुझको डूबने देना

सफ़र लंबा मंज़िल ऊँची बाँह मेरी तुम पकड़े रहना

राह मुश्किल रास्ते दुर्गम कभी ना मुझको डिगने देना

थक हार कर कभी जो बैठूँ नई उम्मीद तुम आकर भर देना

डूबते ढलते अंधियारे की तरफ़ नहीं,

बढ़ते उम्मीदों के उजाले की तरफ़ चलाये रखना

पंछी जब लौटते हैं अपने घोंसले घरौंदों की ओर

देख उन्हें ये मेरा मन भी चाह से भर जाता है 

सोचने को मजबूर हो जाती हूँ कि कब कम होंगे ये

राह के कांटे और पथरीले संकरे रास्तों के कठिन सफ़र पे

है उस दिन की प्रतीक्षा जब मैं लौटूँ मैं भी अपने नीड़ में

बने रहना चलते रहना साथ मेरे जब तक ना पहुँचूँ अपनी मंज़िल पे

मंज़िल से ध्यान ना भटकने देना चातक की तरह निहारूँ मैं

चाहे थकी हूँ हार मानी हूँ चाहे छाले भरे हों पाँव में

बैठी हूँ मैं ध्यान लगाए देखूँ तुझे इसी उम्मीद से

कि शायद मैं भी सुकून की ठंडी सांस लूँ अपने घर तुम्हारी छाँव में

वो रात कैसे गुज़री

वो रात कैसे गुज़री मत पूछ मेरे बेवफ़ा हमसफ़र

जाने कितनी ही सैकड़ों रातों पर भारी थी वो एक रात

कलेजा मुँह को आता था कदम ना बाहिर उठते थे

भारी मन वजनी कदमों से तेरी चौखट सदा के लिए

ना चाहते हुए भी लांघी थी मैंने, पर ना रोका तुमने

अपने घर से निकाले जाने की व्यथा तुम क्या जानोगे

जिसने कभी ना अपना घोंसला छोड़ा, ना छोड़ी कभी डाली

रात सुनसान अकेली थी वो, नन्हीं जान मेरे साथ थी

वो अंधियारी काली अमावस से गहरी काली रात थी 

उस रात सड़क पर कुत्ते कम दरिंदे ज्यादा दिखते थे

कदम ना उठते थे आगे, जाने क्या मन में सोचती थी

एक कदम आगे रखती थी, एक बार पीछे मुड़कर देखती थी

देखती थी वो बंद किवाड़ें, जिन पर हुआ था स्वागत मेरा

जिन पर लगी थी कभी मेहंदी वाले हाथों से हल्दी की थापें

एकटक खड़ी इंतज़ार करती थी कि कुछ जाने पहचाने

शब्द और आवाज़ मेरे बढ़ते रुकते कदमों को विराम देंगें

पर अफ़सोस ऐसा हुआ नहीं, जो हुआ वो कभी सोचा नहीं

आखिरकार छोड़ पी का घर, बाबुल के आंगन वापस चली

कभी कभी कितना मन होता है अपनी देहरी पूजने और

अपना घर गली आंगन लीपने और पूरने रंगोली बनाने का l

ए मन उदास ना हो निराश ना हो वो मौका भी जल्द होगा

जब मैं घर के अंदर मेरा बुरा चाहने वाला घर के बाहर होगा

इंतज़ार है मुझे उस दिन का इंसाफ तू ज़रूर करेगा 

बिन आवाज़ की लाठी से हिसाब करेगा तू वार करेगा

ज़िंदगी के छोर पर

ज़िंदगी के छोर पर जो तुम मिल गए किसी मोड़ पर

बात करोगे नज़रंदाज़ करोगे या देखते रहोगे देखकर

चाहे जो मन करे वो तुम करना ये छोड़ा है तुम पर

मिल जाएँ जो राह पर शायद तुम कुछ देर रुकोगे

चौंक जाओगे या कुछ ठिठकोगे अनायास देख कर

शायद तुम नज़रें फेरोगे लेकिन ज़रा सोचना मुझे देखकर

क्या तुम कुछ ऐसा करोगे या तुमको कुछ याद आयेगा

कुछ सोचकर चिंता छा जायेगी तुम्हारे ललाट पर 

करीब आकर आँखें डाल कर देखोगे तुम मेरे चेहरे पर

धीरे से तुम हाथ बढ़ा कर रख दोगे अपना हाथ मेरे हाथ पर

शायद तुम उदास होगे या कुछ मुस्कुराओगे थोड़ा रुक कर

इनमें से ऐसा ही कुछ करोगे यकीं है मुझे पूरा तुम पर

उम्मीद है शायद तुम कुछ और करोगे यूँ अचानक मुझे देख कर

पढ़ेगा कौन

मेरा लिखा पढ़ेगा कौन
सारी दुनिया ख़ुद में मौन
मैं भी मौन तुम भी मौन
जानता है किसको कौन
सबके हाथ में रहता फोन
मेरा लिखा पढ़ेगा कौन
मैं कौन और तुम कौन
हाल पूछता किसके कौन
दूसरों के दिल को टटोले कौन
मैं भी मौन तुम भी मौन