सोमवार, 6 दिसंबर 2021

" छाँव "

तपती दुपहरी-सा यह जीवन और तुम शीतल-सी छाँव

उग रहे मन में फफोले हैं, अपने भी ग़ैर और अबोले हैं

कड़ी धूप बरसाती अंगारे, सपनों के झुलस गए पाँव

तपती दुपहरी-सा यह जीवन और तुम शीतल-सी छाँव


नेह हुआ खंड-खंड चूर-चूर, छूट गए सब अपने बहुत दूर

तैरती रही मन के सागर में, उन बिछड़ी यादों की नाव

सागर के तट हुए दुखियारे, सूने हुए खुशियों के गलियारे

क्या करना चाँद के शहर जाकर, भला अपना मिट्टी का गाँव

तपती दुपहरी-सा यह जीवन और तुम शीतल-सी छाँव

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