सोमवार, 6 दिसंबर 2021

" यथार्थ "

अनेक बार

यथार्थ की आँखों से

मंज़िल को बहुत पास से देख

मन मचल उठता है, 


पास जाने पर, जाने क्यों

दूर छिटक जाती है वह

ठीक उसी तरह जैसे

पत्ते पर रखी ओस का फिसलना

चाहकर भी ना पकड़ पाने की

नाउम्मीद हृदय को झकझोरती है, 


और शायद कहना चाहती है

कोशिशें अभी और बाकी हैं

अंजाम वक़्त के पिंजरे में

भविष्य की तरह आज भी क़ैद है !


कोई टिप्पणी नहीं: