दर्द होता है मुझे भी, मग़र कोई समझता ही नहीं
हमेशा एक नया ज़ख़्म मिलता है सौग़ात में ही सही
कैसे संभाले, इतने हैं कि संभाले संभलते ही नहीं
ज़ख़्म बेहिसाब यूँ मिल जाते हैं जैसे बिन मांगी मुराद
सालों से चल रहा सिलसिला इनका रुकता ही नहीं
जाने कब थमेगा ये रिवाज़ कोई बतलाता भी नहीं
हैरान हूँ देख कर मैं, जाने क्या सभी को सूझती रही
चाहती हूँ दर्द का आभास उन्हें भी हो, मग़र होता नहीं
भूल जाती हूँ हर ज़ख़्म, समेट कर रखना चाहती नहीं
बताना चाहती हूँ कि दर्द मुझे होता है, कह पाती नहीं
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