सोमवार, 6 दिसंबर 2021

" बाबूजी "

बचपन में जब छोटी थी और थोड़ी सी मोटी थी

कभी पिताजी कभी बाबूजी कह उन्हें पुकारा करती थी

मेरे छोटे गुदगुदे हाथों को अपने मजबूत हाथों में थाम

वो कभी सैर को और कभी बाज़ार ले जाया करते थे

अनगिनत चीज़ें दिलाया और खिलाया करते थे

उन दिनों हम कितने अमीर हुआ करते थे

पिता का साया माँ का प्यार ही असीम दौलत होती थी

उन दिनों इस बात की कहाँ समझ थी, साथ समझ आता था

अब समझ आया है जब वो पास नहीं हैं

पिता का साया क्या होता है माँ की ममता क्या होती है

हमारी तो दुनिया माँ से शुरु और पिता पर खतम होती है

इन दिनों की कभी कल्पना भी नहीं की थी लेकिन गुज़ार रहें हैं

उनके बिना ज़िंदा तो हैं बस जीवन काट रहें हैं

हो जाती कभी बहुत व्याकुल, तब सत्य अपनाया नहीं जाता है

बीत रहे दिनों की कभी कल्पना नहीं की थी लेकिन बिता रहें हैं

उनके बिना ज़िंदा तो हैं लेकिन बस दिन बीत रहें हैं

जाते ही उनके खत्म हुए सब रिश्ते नाते और मायने

छूटे टूटे सब रिश्ते थे झूठे, जो कहते कभी हम जान हैं उनकी

कोई याद नहीं, कोई बात नहीं, कोई पुकारता नहीं है अब

बस जीये जा रहें हैं चले जा रहें हैं, मंज़िल का पता नहीं पर

बेमन्ज़िल ही सफ़र पर चल पड़े हैं बेमकसद चल रहे हैं

किसे कहें अब बाबूजी और किसे माता कह पुकारें

कैसे काटें अब उनके बिन दिन, जब रहें ना कोई सहारे

पिता आसमान और माँ धरती है दोनों असीम अनंतर

थकते नहीं कभी हारते नहीं बस चलते जाते निरंतर

जितना नमन करूँ कम है, आज फिर मेरी आँखें नम हैं

उन्हें याद कैसे करूँ, भूलते ही कब हम हैं

अपने से ही कहाँ हैं, उनके से ही दिखते हम हैं


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