कुछ बिखरे और फटे पन्नों को समेट कर सोच रही हूँ
इन्हें क्यों लिखा था तुमने, जब इनमें मैं कहीं भी नहीं हूँ
यही हैं वो जिन्हें मुझे देते हुए तुमने अपनी मोहब्बत का इज़हार किया था
ना चाहते भी तुमने अपनी झूठी मोहब्बत में जकड़ कर क़ैद कर लिया था
बेशक़ तुम इश्क़ की रवायतों से, मुझसे दूर हो, तुम में मैं कहीं नहीं हूँ
मग़र मैं इश्क़ की अज़ब कश्मकश में हूँ, ना मैं क़ैद में हूँ, ना मैं रिहा हूँ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें