गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

" कुछ ख़्वाब मेरे "

रेत की ज़मीन पर, बह चले हैं कुछ ख़्वाब मेरे

हाथों से फ़िसल रहे कुछ टूटे अधूरे ख़्वाब मेरे


मुठ्ठी बंद करने पर भी फ़िसल रहे हैं ख़्वाब मेरे

मुठ्ठी भींचने पर भी नहीं रोक पाती हूँ ख़्वाब मेरे


चलो बता देती हूँ, तुम्हें माँग रही हूँ ख्वाबों में मेरे

तुम चाहो तो पूरे कर दो, ये कुछ अधूरे ख़्वाब मेरे


जानती हूँ तुमसे अब ऐसा हो ना सकेगा, सनम मेरे

ज़्यादा नहीं, बस कुछ ऐसे ही नन्हें से हैं ख़्वाब मेरे


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